लॉरेंस कोहलबर्ग का नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत Naitik Vikas ki awastha Ka siddhant |
लॉरेंस कोहलबर्ग ने जीन पियाजे के सिद्धांत को आधार बनाकर नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे उसने तीन भागों में विभाजित किया है।
१. पूर्व परंपरागत स्तर या पूर्व नैतिक स्तर
- कोहलबर्ग ने इस स्तर की सीमा 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष तक मानी हैं।
नैतिक दुविधा से संबंधित प्रश्न उनके लाभ या हानि पर आधारित होते हैं। नैतिक कार्य का संबंध सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से क्या सही है एवं क्या गलत है इससे संबंधित होता है। इसलिए अच्छा या बुरा, सही या गलत की व्याख्या, मिलने वाले दंड या पुरस्कार अथवा नियमों का समर्थन करने वाले व्यक्तियों की शारीरिक क्षमता या उसके परिणाम से मापी जाती है। इसको निम्नलिखित दो चरणों में बांटा जा सकता है
१. दंड या आज्ञा पालन अभिमुखता
बालकों की मन में आज्ञा पालन का भाव दंड पर आधारित होता है। इस अवस्था में बालक में नैतिकता का ज्ञान होता है। बालक स्वयं को परेशानियों से बचाना चाहता है। कोहलवर्ग का मानना है कि कोई बालक यदि स्वीकृत व्यवहार अपनाता है तो इसका कारण दंड से स्वयं को बचाना है।
२. आत्मा अभिरुचि तथा प्रतिफल अभीमुखता
इस अवस्था में बालकों का व्यवहार खुलकर सामने नहीं आता है। वह अपनी रुचि को प्राथमिकता देता है। वह पुरस्कार पाने के लिए नियमों का अनुपालन करता है।
२. परंपरागत नैतिक स्तर
- परंपरागत नैतिक स्तर को 10 वर्ष से 13 वर्ष तक माना गया है।
कोई बालक दूसरे व्यक्ति के नैतिक मानकों को अपने व्यवहार में समाहित करता है तथा उस मानक के सही एवं गलत पक्ष पर चिंतन के माध्यम से निर्णय कहता है तथा उस पर अपनी सहमति बनाता है इस स्तर पर बालक अपनी आवश्यकता के साथ-साथ दूसरों की आवश्यकता का भी ध्यान रखता है परंपरागत नैतिक स्तर के दो चरण है।
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१. अधिकार संरक्षण अभिमुखता
इस अवस्था में बच्चे नियम एवं व्यवस्था के प्रति जागरूक होते हैं तथा वे नियम एवं व्यवस्था के अनुपालन के लिए जवाबदेह होते हैं।
२. अच्छा लड़का या अच्छी लड़की
इस अवस्था में बच्चे में एक दूसरे का सम्मान करने की भावना होती है तथा दूसरों से भी सम्मान पाने की इच्छा होती है।
३. उत्तर प्रगत नैतिक स्तर या आत्मा अंगीकृत नैतिक मूल्य
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास के परंपरागत स्तर पर नैतिक मूल्य या चारित्रिक मूल्य का संबंध अच्छे या बुरे कार्य के संदर्भ में निहित होता है। बालक बाहरी सामाजिक आशाओं को पूरा करने में रुचि लेता है। बालक अपने परिवार समाज एवं राष्ट्र के महत्व को प्राथमिकता देते हुए स्वीकृत व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करता है। उत्तर परंपरागत नैतिक स्तर या अंगीकृत नैतिक मूल्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है।
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१. सामाजिक अनुबंध अभीमुखता
इस अवस्था में बच्चे वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है तथा वे यह भी सोचते हैं कि स्थापित नियमों में सुधार की आवश्यकता तो नहीं है।
२. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांत अभिमुखता
इस अवस्था में बच्चे की सोच अंतःकरण की ओर अग्रसर हो जाती है। अब बच्चे का आचरण दूसरे की प्रतिक्रियाओं का विचार किए बिना उसके आंतरिक आदर्शों के अनुसार होता है। यह वह स्थिति है जब हमें बच्चे के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए।
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