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Friday, 27 May 2022

बाल विकास

अभिवृद्धि एवं विकास

अभिवृद्धि तथा विकास दोनों भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं हैं। अभिवृद्धि को बुद्धि भी कहा जाता है अतः दोनों का तात्पर्य एक ही है। वृद्धि का अर्थ शारीरिक अंगों के आकार में वृद्धि है। यह वृद्धि कोशिकाओं के आकार तथा संख्या के वृद्धि का परिणाम है।

  • "विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें परिवर्तनों का वह प्रगतिशील क्रम निहित है जो परिपक्वता के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं और नवीन योग्यताएं प्रकट होती हैं।"  : हरलॉक
  • "विकास एक दिशा की ओर जाने वाला मार्ग है।" टॉपलर
  • "अभिवृद्धि एक निश्चित आयु तक होती है यह आयु है 18 से 20 वर्ष की अवस्था। इस अवस्था को परिपक्वता की अवस्था कहा जाता है।"
  • "अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से होता है जैसे लंबाई और भार में वृद्धि।"  फ्रैंक 
मानव जीवन को गर्भावस्था से मृत्यु तक विभिन्न भागों में विभाजित किया गया है। प्रमुख अवस्थाएं इस प्रकार है
  • शैशवावस्था
  • बाल्यावस्था
  • किशोरावस्था
  • प्रौढ़ावस्था
  • वृद्धावस्था 
बालक के जीवन को विभिन्न तत्व प्रभावित करते हैं इनमें प्रमुख हैं वाह यह तत्व तथा आंतरिक तत्व।

बालक में विकास की प्रक्रिया किस प्रकार संपन्न होती है इसको समझने हेतु विभिन्न मानव वैज्ञानिकों ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं। क्षेत्र में विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपना अपना योगदान दिया है।  जैसे फ्रायड, कोहलवर्ग, पियाजे आदि  मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत इस प्रकार है

१. निरंतर विकास का सिद्धांत

  • विकास की प्रक्रिया निरंतर गतिमान आती है लेकिन इसकी गति हमेशा एक समान है कभी धीमी होती है तथा कभी तेज होती है और जब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं कर लेती तब तक चलती रहती है मानव में कभी कोई अचानक परिवर्तन नहीं होते हैं धीरे-धीरे होते हैं जैसे भाषा का विकास जन्म से ही प्रारंभ हो जाता है।

२. समान प्रतिमान का सिद्धांत 

  • प्रत्येक जाति अपनी जाति के अनुसार ही विकास का अनुकरण करती है जैसे मानव जाति के विकास का आधार एक ही है फिर चाहे वह पश्चिम में पैदा हुआ हो या उत्तर में।

३. विकास के विभिन्न गति का सिद्धांत 

  • मानव के सभी अंगों का विकास एक समान गति से न होकर भिन्न-भिन्न गति से होता है जैसे बालक के जन्म के समय विभिन्न अंगों का अनुपात तथा किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते विभिन्न अंगों के अनुपात में अंतर होता है क्योंकि विभिन्न अंगों का विकास भिन्न भिन्न गति से होता है।

४. विशिष्ट क्रम का सिद्धांत 

  • बालक का विकास है एक विशिष्ट क्रम में चलता है जैसे बालक पहले बैठना सीखता है फिर खड़ा होना फिर चलना।

५. एकीकरण का सिद्धांत 

  • इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले पूरे अंग को चलाना सीखता है फिर उस अंग के विभिन्न भागों को चलाना सीखता है विभिन्न अंगों का एकीकरण ही गति की सहजता को संभव बनाता है।

६. सहसंबंध का सिद्धांत 

  • इस सिद्धांत के अनुसार बालक के ज्यादातर गुणों में सहसंबंध पाया जाता है। जब मैं बालक एक गुण के विकास में तीव्र होता है तो दूसरों गुणों के विकास में भी उसकी तीव्रता देखने को मिलती है। इसी को सहसंबंध का सिद्धांत कहा जाता है।

७. सामान्य प्रतिक्रिया से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत 

  • बालक में विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है। नवजात शिशु शुरुआत में अपने संपूर्ण शरीर को हिलाता है अथवा कोई सामान लेने के लिए पूरे शरीर को फेंकता है। धीरे-धीरे वह हाथ बढ़ाने लगता है एवं अंत में अंगुलियों का प्रयोग करने लगता है।

८. व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धांत 

  • विकास के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तिगत भेद दिखाई देता है। व्यक्तिगत विभिन्नता प्रत्येक बच्चे को अपनी अलग अलग पहचान देती है। यहां तक कि दो जुड़वा बच्चों में भी व्यक्तिगत विभिन्नता देखने को मिलती है। अतः संपूर्ण विश्व में प्रत्येक मानव दूसरे मानव से भिन्न होता है।

९. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत 

  • एक बालक का विकास वंशानुक्रम तथा वातावरण का परिणाम है। स्केनर के अनुसार ,"यह सिद्ध किया जा चुका है कि वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता इसी प्रकार यह भी प्रमाणित किया जा सकता है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में दूषित वातावरण को पोषण या गंभीर रोग जन्मजात योग्यताओं को कुंठित या निर्बल कर देते हैं।"

१०. अवांछित व्यवहार के स्वतः दूर हो जाने का सिद्धांत 

  • बालक विकास की प्रत्येक अवस्था की शुरुआत में कुछ अवांछित व्यवहार सीख जाता है परंतु उस अवस्था के अंत तक वह अवांछित व्यवहार से दूर हो जाता है। जैसे बाल्यावस्था की शुरुआत में बालक बहुत सी शरारतें करता है जैसे चीखना चिल्लाना चढ़ाना इत्यादि परंतु जैसे-जैसे व किशोरावस्था की तरफ पहुंचता है उसकी उपरोक्त आदतों में परिवर्तन देखने को मिलता है।

अधिगम 

  • सीखने का हमारे जीवन में अत्यंत महत्व है। क्या करें अथवा क्या न करें यह हमारे सीखने की प्रक्रिया पर निर्भर करता है। सीखने के द्वारा ही हमारे व्यक्तित्व तथा व्यवहार को उचित दिशा प्राप्त होती है।

  • सीखना एक जन्मजात प्रवृत्ति होती। सीखना हम सब के लिए अत्यंत आवश्यक है। बच्चा जन्म लेने के पश्चात ही सीखना शुरू कर देता है। बच्चा रोता है तो मां तुरंत आती है अतः बच्चों को धीरे धीरे यह सीख जाता है कि रोने से मां तुरंत पास आ जाएगी।

मनोविज्ञान से संबंधित परिभाषाएं

  • सीखना आदतों ज्ञान एवं अभिवृत्तिओं का अर्जन है। क्रो और क्रो
नवीन ज्ञान और नवीन प्रतिक्रियाओं को प्राप्त करने की प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया है। वूडवर्थ

व्यवहार के फलस्वरुप और व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन का आना ही सीखना अथवा अधिगम है। जेपी गिल्फोड
सीखना वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य प्रगतिशील व्यवहार को स्वीकार करता है। स्काइनर 
सीखने की विशेषताएं निम्नलिखित होते हैं 
  • १. सीखना विकासात्मक प्रक्रिया है।
  • २. सीखना परिवर्तनशील है
  • ३. सीखना उद्देश्य पूर्ण है।
  • ४. सीखना सक्रिय है
  • ५. सीखना खोज करना है।
  • ६. सीखना व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों हैं
  • ७. सीखना बुद्धि पूर्ण है
  • ८. सीखना समायोजन है
  • ९. सीखना जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।
  • १०. सीखना सार्वभौमिक है।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक 

  • १. शिक्षकों से संबंधित कारक
  • २. पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक
  • ३. विद्यार्थी से संबंधित कारक
  • ४. वातावरण से संबंधित कारक 

१. विद्यार्थी से संबंधित कारक 

विद्यार्थी से विद्यालय जाता है तथा उसे नया वातावरण प्राप्त होता है और वहां उसी के सामान बहुत से बच्चे होते है। शिक्षक को उन्हीं के समान उसकी बात सुननी होती है। इससे पूर्व जब घर पर परिवार के साथ में विद्यार्थी रहता है तो उसकी बात पर उचित ध्यान दिया जाता था लेकिन इस स्कूल में उसे अपने जैसे बहुत से बच्चों के साथ समायोजन करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में अधिगम प्रक्रिया निम्नलिखित कारकों के द्वारा प्रभावित होती है।
  • १. बालक
  • २. सीखने की लालसा
  • ३. शैक्षिक पृष्ठभूमि
  • ४. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य
  • ५. अभिपरणा
  • ६. परिपक्वता
  • ७. सीखने का समय एवं अवधि
  • ८. अधिगम प्रक्रिया 
  • ९. बुद्धि

२. शिक्षक से संबंधित कारक

जिस प्रकार से सीखने हेतु आहार विज्ञान की प्रक्रिया छात्रों को प्रभावित करते हैं उसी प्रकार शिक्षकों को भी प्रभावित करती है। अध्यापक का ज्ञान पुष्कर विवेक धैर्य सहनशीलता सृजनात्मकता इत्यादि गुण अधिगम को प्रभावित करते हैं। शिक्षक से संबंधित कारक निम्न प्रकार है

  • १. मनोविज्ञान का ज्ञान
  • २. शिक्षक का स्वभाव एवं व्यवहार
  • ३. स्वयं का व्यक्तित्व
  • ४. समय सारणी का उचित प्रयोग
  • ५. अनुशासन का उचित ज्ञान
  • ६. विषय की जानकारी 
  • ७. उचित शिक्षण विधि का प्रयोग 
  • ८. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान 
  • ९. बालक केंद्रित शिक्षा का ज्ञान
  • १०. पाठ्य सहगामी क्रियाओं का ज्ञान।

३. पाठ्यवस्तु से संबंधित कारक

  • १. विषयवस्तु के आकर के अनुसार शिक्षण 
  • २. उदाहरण सहित प्रस्तुतिकरण 
  • ३. दृश्य श्रृव्य सामग्री का प्रयोग
  • ४. उद्देश्य पूर्ण विषय वस्तु
  • ५. विषय के अनुसार कथनाई स्तर
  • ६. विषय वस्तु की प्रकृति
  • ७. सरल भाषा का प्रयोग
  • ८. विषय वस्तु का उचित क्रम
  • ९. रुचि के अनुरूप विषय वस्तु
  • १०. विषय वस्तु का ढांचा 















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